परिचय
नरपति नाल्ह राजस्थान के मध्यकालीन डिंगल भाषा के एक प्रमुख कवि थे। वे अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘बीसलदेव रासो’ के कारण प्रसिद्ध हुए। यह काव्य पुरानी पश्चिमी राजस्थानी भाषा में लिखा गया है और श्रृंगार रस की एक गेय रचना मानी जाती है।
‘बीसलदेव रासो’ में नरपति नाल्ह ने राजा बीसलदेव और राजमती की कथा को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रेम, विरह और मान-अपमान का सूक्ष्म चित्रण मिलता है।
नरपति नाल्ह का समय, जीवन एवं नाम
नरपति नाल्ह के जीवन से संबंधित स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।
अपनी रचना में उन्होंने स्वयं को कभी “नरपति” और कभी “नाल्ह” कहा है। ऐसा माना जाता है कि —
- ‘नरपति’ उनकी उपाधि (title) थी,
- और ‘नाल्ह’ उनका वास्तविक नाम।
साहित्य इतिहासकारों के अनुसार, नरपति नाल्ह का समय चौदहवीं शताब्दी विक्रमी (लगभग 1343 ई.) के आस-पास माना जाता है।
इनका जन्मस्थान निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, परंतु यह निश्चित है कि वे राजस्थान क्षेत्र से संबंधित थे और डिंगल (पुरानी राजस्थानी) के कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं।
‘बीसलदेव रासो’ की रचना और विषय-वस्तु
‘बीसलदेव रासो’ नरपति नाल्ह की एकमात्र उपलब्ध और प्रसिद्ध कृति है।
यह एक गीतिकाव्य है, जिसे केदार राग में गाने के लिए लिखा गया था।
कथा-सारांश:
काव्य में अजमेर के राजा बीसलदेव और राजा भोज की पुत्री राजमती की कथा है।
- बीसलदेव और राजमती का विवाह होता है।
- बीसलदेव को अपने राज्य की समृद्धि पर घोर अभिमान था।
- राजमती उसे अभिमान न करने की सलाह देती है और बताती है कि अन्य राजाओं का वैभव भी उससे कम नहीं है।
- इस बात से आहत होकर बीसलदेव उड़ीसा चला जाता है और वहाँ के राजा की सेवा करने लगता है।
- बारह वर्ष बाद, राजमती अपने पतिदेव को वापस बुलाने के लिए एक ब्राह्मण भेजती है।
- अंततः बीसलदेव बहुत-से रत्न लेकर लौटता है और पत्नी से मिलन होता है।
यह कथा पूरी तरह काल्पनिक है और ऐतिहासिक प्रमाणों से मेल नहीं खाती। फिर भी इसमें भावनाओं का अत्यंत सुंदर चित्रण है, विशेषतः विरह रस का।
काव्य की विशेषताएँ और शैली
नरपति नाल्ह की लेखन शैली सरल, गेय और लोकभावनात्मक है।
उनकी कृति में रासो परंपरा का प्रभाव तो है, परंतु यह अन्य रासो काव्यों की तरह विविध छंदों में नहीं लिखी गई।
| विशेषता | विवरण |
|---|---|
| कृति का नाम | बीसलदेव रासो |
| भाषा | पुरानी पश्चिमी राजस्थानी / डिंगल |
| रचना काल | लगभग 1343 ई. |
| प्रमुख रस | श्रृंगार रस (मुख्यतः विरह पक्ष) |
| राग | केदार राग |
| रचना का प्रकार | गेय (गाने योग्य) काव्य |
| छंद | विशेष मात्रिक छंद (छः चरणों वाला) |
| संपादक | माताप्रसाद गुप्त |
| मुख्य पात्र | राजा बीसलदेव, रानी राजमती |
| मुख्य भाव | प्रेम, विरह, अभिमान, पुनर्मिलन |
‘बीसलदेव रासो’ की काव्यगत विशेषताएँ
- लोककाव्य तत्वों की प्रचुरता – रचना में लोकगीत और लोककथाओं की शैली दिखाई देती है।
- विरह और मिलन का समन्वय – विरह-दशा का मार्मिक बारहमासा वर्णन और मिलन की कोमलता दोनों ही हैं।
- सरल और संगीतात्मक भाषा – गेयता और लय का उत्कृष्ट सामंजस्य।
- संवेदनशील चरित्र-चित्रण – राजमती का विरह और बीसलदेव का अभिमान मानवीय भावनाओं को उभारता है।
ऐतिहासिकता का प्रश्न
‘बीसलदेव रासो’ में ऐतिहासिकता की दृष्टि से कई असंगतियाँ हैं।
इतिहासकारों के अनुसार —
- अजमेर के चार बीसलदेव (विग्रह राज) हुए थे।
- तीसरे बीसलदेव (लगभग 1093 ई.) की रानी का नाम राजदेवी था, न कि राजमती।
- अतः यह कथा ऐतिहासिक नहीं बल्कि काव्यात्मक कल्पना पर आधारित है।
भाषा-शैली
नरपति नाल्ह की भाषा डिंगल (पुरानी पश्चिमी राजस्थानी) है।
उनकी शैली में –
- मधुरता,
- लयात्मकता,
- और भावनात्मक प्रवाह का सुंदर मिश्रण मिलता है।
उनकी रचना में गायन की उपयुक्तता और लोकभाषा की सजीवता दोनों ही उपस्थित हैं।
नरपति नाल्ह की प्रमुख कृति
| क्रम संख्या | कृति का नाम | रस | विशेषता |
|---|---|---|---|
| 1 | बीसलदेव रासो | श्रृंगार रस (विरहप्रधान) | केदार राग में लिखी गेय रचना; बीसलदेव और राजमती की प्रेमकथा |
नरपति नाल्ह का साहित्यिक महत्व
नरपति नाल्ह ने राजस्थानी डिंगल साहित्य को एक नई दिशा दी।
उनकी रचना ‘बीसलदेव रासो’ ने श्रृंगार रस और लोक परंपरा का सुंदर संगम प्रस्तुत किया।
उन्होंने यह सिद्ध किया कि लोकभाषा में भी उच्चकोटि का साहित्य संभव है।
